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इंसान एक मृग मरीचिका

Kuch Kahna Hai
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ये  जीवन कम है

इंसान क्या है

समझने के लिए

शब्दकोष भी कम पड़ता है

इंसान क्या है?

कहने के लिए


कभी लगता है

इंसान सूर्य है

उगता हुआ

चढ़ता हुआ

प्रगति पथ पर

अविरत

या ढलता हुआ

मृत्यु पथ पर

गतिशील

पहिये की तरह


कभी लगता है

इन्सान वक़्त है

ज्येष्ठ की दुपहरी का

बचकर भागे हर कोई

छाया की तलाश में

या पौष के सवेरे का

जिसके साये में

धूप सेके हर कोई

चूजे की तरह


कभी लगता है

इंसान बसंत है

बहा देती है जो

सभी को

भावनाओं में

कामनाओं में

बहार की तरह

फिर से हरीभरी

बगिया नज़र आती है

पतझड़ के बाद

ख्वाब की तरह


कभी लगता है

इंसान वर्षा है

ला देती है जो

हरियाली

सूखे बंज़र में

या विनाशलीला

बाढ़ बनकर

रूद्र की तरह!



कभी लगता  है

इंसान सर्दी है

कंपकपा देती है

जो हाड़मास वाले को

भीतर से

बाहर  तक

खौफ बनकर

मौत की तरह


कभी लगता है

इंसान गर्मी है

झुलसा देती है

सभी को

बिना आग लगाये

शब्दों से

सिर से पांव तक

अग्नि की तरह



कभी लगता है

इंसान भ्रम है

या कोई मायाजाल

मृग मरीचिका सा

जितना करीब जाते है

उतना ही दूर पाते है “राज”

अनंत आकाश की तरह

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